अंग्रेजों ने खौलते तेल में डलवा दिया था, स्कूल में पढ़ाई के लिए रखा था कंकाल
नगेसिया समाज के लिए आज का दिन ऐतिहासिक रहा। लागुड़ नागेसिया की शव यात्रा के दौरान आदिवासी वाद्ययंत्रों के साथ उनको विदाई दी गई। शवयात्रा के दौरान समाज की महिलाओं, पुरुष और युवतियों ने पूरे मार्ग पर फूल बरसाए। लागुड़ के अंतिम संस्कार में जनप्रतिनिधि, आदिवासी समाज के नेता, परिवार व आसपास के लोग बड़ी संख्या में शामिल हुए। प्रशासन की मौजूदगी में अंतिम संस्कार किया गया।
स्कूल में कैद मिला था शहीद का कंकाल
अंग्रेजी हुकूमत से लड़ने वाले शहीद लुगड़ा का कंकाल अंबिकापुर के सबसे पुराने स्कूल में रखा था। आदिवासी समाज के लोग अंतिम संस्कार के लिए उनके परिजन को देने की मांग कर रहे थे। स्कूल में छात्रों को पढ़ाने को लेकर कंकाल रखने की बात कही गई थी। दैनिक भास्कर ने इस संबंध में 2 दिन पहले खबर प्रकाशित की थी। जिसके बाद मुख्यमंत्री ने अंतिम संस्कार के आदेश प्रशासन को दिए। शुक्रवार को 300 जवानों की ड्यूटी भी इसमें लगाई गई।
बच्चों को पढ़ाने की बात पर समाज ने उठाया था सवाल
समाज के लोगों का कहना था कि साल 1913 में जब कुसमी इलाके के लागुड़ नगेसिया शहीद हुए, तब स्कूल भवन में इतनी बड़ी पढ़ाई भी नहीं होती थी कि वहां किसी का कंकाल रखकर सिखाया जाए। शासकीय मल्टी परपज स्कूल के प्रिंसिपल एचके जायसवाल का कहना था कि स्कूल के लैब में कंकाल रखा हुआ था। उसका ढांचा टूट गया है, इसके बाद उसे प्रिजर्व करके रखा है। मेरी जानकारी में उसका उपयोग स्टडी के लिए नहीं हो रहा है।
अंतिम संस्कार पर हुआ विवाद, अब बनेगा स्मारक
आदिवासी सर्व समाज पिछड़ा वर्ग के ब्लॉक सचिव संतोष इंजीनियर का कहना है कि परिजन चाहते थे कि समाज की परंपरा के अनुसार कंकाल को दफनाया जाए। उन्होंने आरोप लगाया कि लेकिन भाजपा के लोग ऐसा नहीं चाहते थे। उन्होंने जबरदस्ती दाह संस्कार कराया। इसके बाद जब अस्थियां लेने गए तो जली नहीं थीं। उन्हें फिर से सामरी में दफनाया गया है। वहीं सामरी में तहसील भवन के पास जमीन आवंटन की गई है, जहां पर लागुड़ के साथ उनके साथी बिगुड़ और तिथिर का स्मारक बनेगा।
सरगुजा क्षेत्र में लागुड़-बिगुड़ आज भी प्रसिद्ध
साल 1912'3 में थीथिर उरांव को घुड़सवारी दल ब्रिटिश आर्मी ने मार डाला और लागुड़ व बिगुड़ को पकड़कर ले गए। ऐसा कहा जाता है कि दोनों को खौलते तेल में डालकर मार डाला गया। इनमें से एक लागुड़ के कंकाल को तब के एडवर्ड स्कूल और वर्तमान के मल्टी परपज स्कूल में विज्ञान के स्टूडेंट को पढ़ाने के नाम पर रखवा दिया गया था। लागुड़-बिगुड़ की कहानी सरगुजा क्षेत्र में लागुड़ किसान और बिगुड़ बनिया के रूप में आज भी प्रसिद्ध है।
1982 में भी हुआ था प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार
सर्व आदिवासी समाज के लोग कंकाल का DNA टेस्ट कराने की मांग करते रहे हैं। पर सरकार ने कोई पहल नहीं की। वहीं 1982 में संत गहिरा गुरु ने लागुड़ की आत्मा की शांति के लिए प्रतीकात्मक रूप से रीति रिवाज से कार्यक्रम कराया गया था। 25 जनवरी को भी सर्व आदिवासी समाज के लोगों ने कलेक्टर से लागुड़ के कंकाल को उनके परिजन को दिलाने मांग की थी।
झारखंड के टाना आंदोलन में हुए थे शामिल
बलरामपुर जिला स्थित कुसमी ब्लॉक के राजेंद्रपुर निवासी लागुड़ नगेसिया पुदाग गांव में घर-जमाई रहते थे। इसी दौरान उनका झुकाव झारखंड में चल रहे टाना भगत आंदोलन से हुआ। क्रांतिकारी टाना भगत के शहीद होने के बाद लागुड़ भी उस आंदोलन से जुड़ गए। उनके साथ बिगुड़ और कटाईपारा जमीरपाट निवासी थिथिर उरांव भी आंदोलन में शामिल हुए। इसके बाद तीनों मिलकर अंग्रेजों के खिलाड़ लड़ने लगे।
सरगुजा क्षेत्र में आज भी सुनाई जाती है लागुड़-बिगुड़ की कहानी
तीनों ने मिलकर अंग्रेजों का साथ देने वालों को मार दिया। इसके बाद साल 1912'3 में थीथिर उरांव को घुड़सवारी दल ब्रिटिश आर्मी ने मार डाला और लागुड़ व बिगुड को पकड़कर ले गए। कहा जाता है कि उसके बाद दोनों को खौलते तेल में डालकर मार डाला गया। इनमें से एक लागुड के कंकाल को तब के एडवर्ड स्कूल और वर्तमान के मल्टी परपज स्कूल में विज्ञान के स्टूडेंट को पढ़ाने के नाम पर रख दिया गया था। लागुड़ और बिगुड़ की कहानी सरगुजा क्षेत्र में आज भी प्रसिद्ध है।
लागुड़ का दामाद गांव में सुनाता था कहानी
लागुड़ की नातिन मुन्नी नगेसिया चरहट कला ग्राम पंचायत में रहती है। मुन्नी की मां ललकी, लागुड़ की बेटी थी। ललकी की शादी कंदू राम से हुई थी। एक साल पहले ललकी और कंदू की मौत हुई। चरहट कला के सरपंच मनप्यारी भगत के पति जतरू भगत बताते हैं कि लागुड़ का दामाद कंदू हमेशा गांव में अपने ससुर की कहानी सुनाता था और कहता था कि गांव में उनकी मूर्ति स्थापना करनी चाहिए। परिजनों ने सरकार से मांग भी की थी।
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