नीतीश कुमार की विश्वसनीयता दांव पर थी, लेकिन आज उस यू-टर्न की चर्चा मंद हो गई है। उन्होंने भाजपा विरोध को राष्ट्रीय कलेवर देने की कोशिश कर अपनी छवि पर हो रहे आक्रमण से ध्यान हटाने में सफलता हासिल की है। किसी को अंदाजा नहीं था कि नीतीश कुमार इस पहल को इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल अलायंस (I.N.D.I.A) तक पहुंचा देंगे। तब भी नहीं जब इस साल अप्रैल में वो ममता बनर्जी से मिलने कोलकाता पहुंच गए और टीएमसी ने पश्चिम बंगाल की पेचीदा राजनीति में कांग्रेस को साधते हुए भाजपा का विरोध करने पर सहमति जता दी। फिर उसी दिन वो लखनऊ में अखिलेश यादव से मिले। इससे पहले और इसके बाद नीतीश कुमार दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल से लेकर स्टालिन, केसीआर और भाजपा के हमलों से हकलान महाविकास अघाड़ी के नेताओं से भी मिलते रहे हैं। पर, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश दो ऐसे राज्य हैं जहां नीतीश कुमार के वन टू वन फॉर्म्युले का लिटमस टेस्ट है। ये फॉर्म्युला है लोकसभा की अधिकतम सीटों पर भाजपा के खिलाफ इंडिया का कोई एक साझा उम्मीदवार हो।
ये कितना कठिन है, इसे ममता बनर्जी से समझिए। वो कांग्रेस से लड़ीं और अलग होकर पश्चिम बंगाल की राजनीति में दबदबा कायम किया। फिर, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई वाले लेफ्ट फ्रंट को हराकर टीएमसी को सत्ता दिलाई। कुछ-कुछ शरद पवार की तरह। लेकिन, क्या शरद की तरह ममता भी कांग्रेस से हाथ मिलाएंगी, ये अभी भी एक सवाल है। और क्या बिना हाथ मिलाए बिना वन टू वन कंटेस्ट का टोन सेट हो सकता है, ये मुंबई में तय हो सकता है। नीतीश के इस फॉर्म्युले की प्रयोगशाला तय हो चुकी थी। यूपी का घोसी उपचुनाव जहां पांच सितंबर को वोट डाले जाएंगे। कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के पक्ष में उम्मीदवार ही नहीं उतारा। मायावती का स्टैंड अभी तक एनडीए और इंडिया दोनों से अलग रहने का है, लेकिन घोसी में उम्मीदवार नहीं है। रोचक ये है कि उपचुनाव नहीं लड़ने की परंपरा मायावती त्याग चुकी हैं। 2020 के विधानसभा उपचुनावों और आजमगढ़ में लोकसभा उपचुनाव में बसपा उम्मीदवार मैदान में थे। इसलिए घोसी का चुनाव परिणाम इंडिया के लिए काफी अहम साबित होने वाला है। उधर नीतीश कुमार मुंबई रवाना होने से पहले सार्वजनिक तौर पर बोल चुके हैं कि इंडिया का कुनबा 26 से आगे बढ़ने वाला है।
2013 में नरेंद्र मोदी का विरोध कर पहली बार भाजपा से अलग होने वाले नीतीश कुमार की साख 2023 में वैसी नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं। कहने को तो आज भी जेडीयू उन्हें पीएम मटीरियल बताती है लेकिन 2013 वाली बात नहीं है। तब कांग्रेस के सत्ता में रहते वो मोदी का विरोध कर विपक्ष के पोस्टर बॉय बन गए थे। आज कांग्रेस संघर्ष कर रही है लेकिन राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और कर्नाटक-हिमाचल में मिली जीत से दृश्य बदल हुआ है। उधर ममता बनर्जी के अलावा अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे और केसीआर की राजनीति भाजपा विरोध पर टिकी हुई है। ऐसे में पिछले साल नौ अगस्त की सुबह तक भाजपा के साथ रहने वाले नीतीश कुमार का पीएम मटीरियल के तौर पर स्वीकारोक्ति आसान नहीं है।
इंडिया की मजबूती नीतीश की मजबूरी
शायद इसीलिए इंडिया के संयोजक बनने पर भी बयानबाजी तेज है। उकताकर नीतीश ने भी कह दिया है कि उन्हें किसी पद से मतलब नहीं है और वो सिर्फ सबको एकजुट कर रहे हैं। दरअसल पद निरपेक्ष भाव रख कर नीतीश अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। मेरी जानकारी के मुताबिक वो अकाली दल, केसीआर और नवीन पटनायक को मनाने में लगे हैं। उनके बेहद करीबी नेता ने बताया कि वैचारिक तौर पर निकटता के कारण नीतीश की बातों को नवीन बाबू तवज्जो देते हैं। हालांकि ओडिशा में नवीन पटनायक की राजनीति स्पष्ट है। साम्यता होने के बावजूद नीतीश की तरह उनकी नजर दिल्ली की तरफ नहीं है। इसलिए वो दोनों गठबंधनों से दूरी की स्वर्णिम रणनीति पर कायम रह सकते हैं। वहीं, नीतीश कुमार पर राष्ट्रीय जनता दल का दबाव है। तेजस्वी महागठबंधन की अगुआई करने के लिए तैयार बैठे हैं। नीतीश की रणनीति दिल्ली शिफ्ट होकर बिहार की राजनीति कंट्रोल करने की है। इसका अनुभव पुराना है। अटल बिहारी वाजपेयी काल में वो कई मंत्रालय संभाल चुके हैं। जब भी बिहार में हारते तो दिल्ली शिफ्ट हो जाते। जब पहली बार सात दिनों के लिए सीएम बने तब भी केंद्र में मंत्री थे। बहुमत साबित नहीं कर पाए तो दिल्ली लौट गए। इसलिए इंडिया की मजबूती दरअसल नीतीश की मजबूरी भी है। इसमें भी कोई शक नहीं कि पांच बातें नीतीश के पक्ष में जाती है-
1. नीतीश कुमार पांच दशकों से राजनीति में सक्रिय हैं लेकिन उनकी छवि हमेशा बेदाग रही।
2. उन्होंने हमेशा ये स्टैंड रखा कि भाजपा से लड़ाई सीधी रखनी होगी, तीसरे मोर्चे की कोई गुंजाइश नहीं है।
3. राजनीति से इतर व्यक्तिगत स्वभाव के कारण सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों खेमे में उनकी पैठ है
4. सामाजिक सुधार आधारित विकास मॉडल जिसे अब दूसरे राज्यों में भी बढ़ाया जा रहा है। आधी आबादी पर फोकस इसके केंद्र में है।
5. जातीय गणना पूरा करने की पुरजोर कोशिश। इससे गैर यादव अन्य पिछड़ा वर्ग वोट बैंक को साधने की कोशिश जो भाजपा की तरफ शिफ्ट हो गए हैं। नीतीश के इस हथियार को मध्य प्रदेश में अब कांग्रेस भी आजमा रही है।
मोदी के खिलाफ बिछा जाल
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमेशा भाजपा का विरोध करने वाले लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार समाजवादियों की दूसरी पीढ़ी के नेताओं में हैं जिन्होंने इमरजेंसी देखी और इंदिरा गांधी के विरोध में जयप्रकाश नारायण के साथ एकजुट हुए। उनकी कोशिश है कि 1977 में जैसा गठबंधन कांग्रेस के खिलाफ बना उसी तरह की तैयारी भाजपा के खिलाफ 2024 में की जाए। इंदिरा के खिलाफ गठबंधन एक था लेकिन जनता पार्टी, भारतीय लोक दल, जन संघ, स्वतंत्र पार्टी समेत सभी ने अपने-अपने सिंबल पर ही चुनाव लड़ा। ये फैसला रणनीति के तहत लिया गया था क्योंकि तब ऐसी संचार क्रांति नहीं थी। जिस इलाके में जो पार्टी मजबूत थी वहां के वोटर उसे सिंबल से ही जानते थे। इस बार भी रणनीति वही होगी लेकिन गठबंधन के लिए एक साझा लोगो जारी करने की तैयारी है। इस बीच मुंबई की सड़कों पर जीतेगा इंडिया को पोस्टर लगा दिए गए हैं। ये भी गौर करने लायक है कि इंडिया की ये तीसरी बैठक है और एजेंडे में क्या होगा इसे सार्वजनिक करने में नीतीश-लालू ही आगे रहे हैं। जैसे, नीतीश कुमार पहले ही बता चुके हैं कि मुंबई के एजेंडे में सीट शेयरिंग शामिल है लेकिन भाजपा से लड़ने का फॉर्म्युला बताना अलग बात है और इसे धरातल पर उतारना एक बड़ा चैलेंज। तथ्यात्मक तौर पर देखें तो बिहार ही इकलौता ऐसा राज्य है जहां पूर्ववर्ती यूपीए का स्वरूप स्पष्ट है। कांग्रेस, लेफ्ट, जेडीयू और आरजेडी एक साथ हैं। जैसा पहले ही बताया गया है इसे केरल, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब में दोहराना बड़ी चुनौती है। इसलिए मुंबई में यही एजेंडा I.N.D.I.A के भविष्य के लिए निर्णायक साबित हो सकता है।
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